“गिल्लू”

    29 मई  2020

           गर्मियों का दिन था, परंतु इस साल बाकी वर्षों की तरह कड़कती धूप का एहसास कम ही था। मैं और मेरी छोटी बहन, हम दोनों आंगन में पेड़ की छांव के नीचे बैठे हुए थे... तभी अचानक हमारी  नज़र एक नन्ही - सी जान पर जा अटकी, जो आम के पेड़ से नीचे उतरकर जमीन पर फुदक रही थी। वह नन्ही - सी जान और कोई नहीं....एक छोटी सी, प्यारी सी गिलहरी थी।
 वह फुदकती हुई इतनी सुंदर लग रही थी कि हम उसकी ओर खिंचे चले आए। अब हम तो ठहरे बच्चे... जो चीज अच्छी लगी बस उसे पाने की जिद्द...। उसे देखकर हमारे मन में उसे पकड़कर अपने पास रखने का ख्याल आया। बस और क्या...? हम उसे पकड़ने का इंतजाम करने लगे। 
           हम दोनों ने हाथ में बाल्टी लिया और चुपके से हौले -  हौले उसके पास गए, पर तब तक छोटी गिलहरी ने हमारे पैरों की आहट सुन ली थी इसलिए वह इधर - उधर भागने लगी, परंतु छोटी होने के कारण वह ज्यादा तेज नहीं भाग पा रही थी तो हमने उसे बाल्टी से ढक लिया। उसे पकड़ पाना इतना आसान नहीं था.... ज्यों - त्यों
बहुत मुश्किल से हमने उसे बाल्टी से बाहर निकाल कर एक पिंजरे में रख दिया।
           शुरुआत में गिलहरी बहुत डरी हुई थी। हमने कुछ रोटियों के टुकड़े उसके पिंजरे में डाला, लेकिन उसने कुछ भी नहीं खाया। अब शाम ढल चुकी थी, हमने उसे घर के अंदर रखा, उसे फिर से रोटियां और दूध दिया। इस बार वह रोटियों के छोटे - छोटे टुकड़े को कुतर - कुतरकर खाने लगी। मेरे घर के अन्य सदस्य भी उसे देखकर बहुत खुश हुए। रात में हमने उसके पिंजरे के अंदर एक छोटा कपड़ा रख दिया ताकि वह आराम से सो सके।
           अगले सुबह आंखें खुलते ही मैं गिलहरी को देखने गई। वह अब तक सो रही थी। हमने उसका नामकरण किया और उसे प्यार से ‘गिल्लू’
बुलाने लगे। दिन बीतने लगे...अब वह हमारे साथ घुलने - मिलने लगी थी। हमें लगा कि अब वह घर से बाहर नहीं जाएगी इसलिए हमने उसे पिंजरे से बाहर निकाल दिया और घर के अंदर ही घूमने के लिए छोड़ दिया। ज़मीन पर बिछी खजूर की चटाई तो मानो उसके लिए लक्ष्मण रेखा की तरह थी, वह उससे बाहर नहीं जाती थी। शुरुआत में गिल्लू बस चटाई के अंदर ही घूमा करती थी।
          साथ ही उसकी प्यार भरी मस्तियां भी शुरू हो गई थी। गिल्लू कभी हमारे पैरों से सिर तक चढ़ जाती तो कभी माँ के बालों को घोंसला समझकर, उसमें छिप जाती...। जब हम खाना खाते तो वह हमारी थाली में से चावल के टुकड़े उठाकर, आगे के दो छोटे पंजों से बड़े प्यार से खाने लगती....। उसे ऐसा करते देख हमें बहुत आनंद मिलता था। फिर जब रात होती तो हम उसे वापस पिंजरे में रख देते। सुबह होते ही वह पिंजरे से बाहर आने के लिए हलचल करना शुरू कर देती। ऐसा ही सिलसिला कई दिनों तक चलता रहा...।
              लगभग एक महीने बीत चुके थे। गिल्लू अब तक  हमारे साथ थी लेकिन वह कब तक हमारे साथ रहेगी ये भला कौन जानता था..? आखिर में, संयोग कहें या हमारी भूल...जिसकी वजह से आज गिल्लू हमारे साथ नहीं है। चूंकि गर्मियों का मौसम था... एक आम के पेड़ की डाली काटी गई थी जिसपर बहुत से फल लगे थे लेकिन कच्चे थे। उनको तोड़ा गया और उसे पकने के लिए दवाई डालकर घर में रखा गया।
          दुर्भाग्यवश उस दिन मैं घर से बाहर गई हुई थी और मेरी छोटी बहन स्कूल चली गई थी।
चूंकि सुबह जब मैंने गिल्लू को देखा था तो वह दीवार पर टंगी एक थैले में घुसकर आराम से सो रही थी, मैंने उसे अपनी हथेली पर रखकर जगाने की कोशिश की, लेकिन वह फिर से सिमटकर सो गई तो मैंने उसे वापस उसी थैले में सुला दिया। फिर मैं अपने काम से बाहर चली गई।
        जब मैं शाम को घर वापस आई तो मैंने गिल्लू को घर पर बहुत ढूंढा पर वो नहीं मिली फिर माँ ने बताया कि गिल्लू मर चुका है। मैं हैरान रह गई कि ऐसा कैसे हो गया...बहन से पूछा तो उसने कुछ बोला नहीं। बाद में पता चला कि आम पकने की दवाई के गंध से वह जीवित नहीं रह सकी। मेरे आने से पहले ही गिल्लू को समाधि दे दी गई थी। बाद में बहन ने बताया कि जब वह स्कूल से घर वापस आई तो उसे आम के ढेर पर गिल्लू पड़ा मिला। सुनकर मेरी आँखें नम हो गई।

           तो ये थी गिल्लू से जुड़ी मेरे जीवन की एक घटना.... “इस घटना के बाद मुझे एक बहुत बड़ी सीख मिली है कि जो पशु-पक्षियां खुले वातावरण में जीने के लिए बने हैं और जिन्हें मैं अपने पास रखकर आज़ादी नहीं दे सकती, उन्हें मैं नहीं पालूंगी।”
          आज भी मेरे घर के आस-पास पेड़ की शाखाओं पर गिलहरियां फुदकती रहती हैं, उन्हेंं देखकर गिल्लू की बहुत याद आती है...लेकिन उन्हें उछल- कूद करते देख, मन खुश हो जाता है। 
 

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